हिन्‍दी साहित्‍य, भारतीयता और साहित्‍य जगत की हलचल के प्रकाशन हेतु समर्पित मासिक पत्रि‍का

शाश्‍वत सत्‍य



तुलसी की प्रेम-साधना का स्‍वरूप
तुलसी के समय की परिस्थितियाँ उथल-पुथल भरी थीं । देश परतन्‍त्रता की बेड़ि‍यों में ज‍कड़ा जा चुका था । भारत का सांस्‍कृतिक सूर्य अस्‍त हो चुका था । हिन्‍दू सम्राट और उनके राज्‍य भारत के मानचित्र से मिटते जा रहे थे । हिन्‍दू अत्‍यन्‍त दीन-हीन दशा में जीवनयापन कर रहे थे ।  जनता के सामने कोई आदर्श न था । कनफटे साधू अलख जगा रहे थे, चारों ओर अकर्मण्‍यता फैलाई जा रही थी । ऊँच-नीच का भेदभाव जोरों पर था । ऐसी स्थिति में निरावलम्‍ब, असहाय तथा भग्‍नहृदय जनता किसी ऐसे सम्‍बल की खोज में थी जो उन्‍हें सान्‍त्‍वना दे सके ।  ऐसे समय में ही तुलसी का आविर्भाव हुआ ।
तुलसी ने जनता को राम-भक्‍ति का सम्‍बल प्रदान किया । वे एक राम का ही गुणगान करना अपने जीवन का उद्देश्‍य मानते हैं । कवि-कर्म की सार्थकता भी उसी में निहित है :
भगति हेतु  बिधि  भवन बिहाई ।   सुमिरत  सारद  आवति  धाई ।।
राम चरित  सर  बिनु अन्‍हवाएँ ।  सो  श्रम  जाइ    कोटि उपाएँ ।।
कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी । गावहिं हरि जस कलि मल हारी ।।
कीन्‍हें  प्राकृत  जन  गुन  गाना । सिर  धुनि  गिरा लगत पछिताना ।।  
श्‍वर के गुणकथन हेतु अपनी काव्‍य प्रतिभा का प्रयोग करना सर्वश्रेष्‍ठ है । यह गुणकथन पूर्वराग की एक अवस्‍था है । जिसके मूल में प्रेम की अलौकिक भावना विद्यमान रहती है।  यह प्रेम यदि सांसारिक वस्‍तुओं, सुखों या प्राणियों से है तब तो वह प्राकृत लोगों के गुणगान के समान सरस्‍वति के रूदन की ही श्रेणी में आएगा ।
इसीलिए सच्‍चे प्रेम को विषयासक्‍तियों से भिन्‍न बताते हुए तुलसी कहते हैं कि विषयासक्‍ति तो रोग के समान है । जीव का चिकित्‍सकीय कौशल तो इसी में है कि  इस रोग को  शीघ्र दूर करने का प्रयास किया जाए । यथा :
प्रेम सरीर प्रपंच रुज उपजी अधिक उपाधि ।
तुलसी भली  सुबैदई  बेगि बाँधिऐ  ब्‍याधि ।।
तुलसी का आशय यह है कि जितनी जल्‍दी मनुष्‍य विषयासक्‍ति‍यों  को त्‍याग कर अलौकिक प्रेम के मार्ग को अपना ले, उतना ही उसके हित में है ।
कवि कहता है कि जब तक साँप की केंचुल छूट नहीं जाती उसे ठीक ढंग से दिखाई नहीं देता ।  केंचुल के छूट जाने पर ही साँप को दिखाई देने लगता है, उसी प्रकार राम के प्रेम का मार्ग भी विषयों की ओर पीठ कर देने से ही दिखाई देता है :
राम प्रेम पथ पेखिऐ  दिएँ बिषय तन पीठि ।
तुलसी  केंचुरि  परिहरें  होत  साँपहुँ दीठि ।।
विषयान्‍ध मनुष्‍य की विवेक शक्‍ति समाप्‍त हो जाती है । उसका हित-अनहित का निर्णय भी एकांगी होता है । अतः वह परमतत्‍व के महत्‍व को समझ ही नहीं सकता । विषयों का परित्‍याग करने से मनुष्‍य की दृष्टि में निर्मलता आ जाती है और उसकी विवेक शक्‍ति जाग्रत हो जाती है । उस अवस्‍था में ही राम-प्रेम का कल्‍याणकारी मार्ग दृष्टिगोचर होने लगता है । इसलिये प्रभु-प्रेम को  छोड़कर विषयों में आसक्‍त रहने वाले लोगों को तो भाग्‍यहीन ही कहा जाएगा:
सुनहु उमा ते लोग अभागी । हरि तजि होहिं बिषय अनुरागी।।
विषयान्‍ध लोगों को मनुष्‍य जीवन का परम लक्ष्‍य ज्ञात न होने के कारण उन्‍हें अभागा कहा गया है ।
उपर्यक्‍त तथ्‍यों के दृष्टिगत ही तुलसी ‘राम सनेही’ से प्रेम न करने वालों को धिक्‍कारते हैं कि जिस प्रभु ने देव-दुर्लभ शरीर तुम्‍हें प्रदान किया, तुमने उससे स्‍नेह क्‍यों नहीं किया । ऐसे लोगों को वे यही सलाह देते हैं कि सब से अनासक्‍त होकर केवल एक राम के प्रति प्रेम से सरस हो जाओ :
रे मन  सब सों निरस ह्वै,  सरस राम सों होहि ।
भलो सिखावन देत है, निसि दिन तुलसी तोहि ।।
जब तक लौकिक प्रेम का प्राधान्‍य रहेगा, अलौकिक प्रेम के लिए हृदय में स्‍थान नहीं बन  पाएगा । दूसरे, लौकिक  प्रेम  कभी  मनुष्‍य  को  स्‍थाई  तृप्ति  की अवस्‍था प्रदान नहीं कर सकता । यह सरसता केवल ईश्‍वर-प्रेम के द्वारा संभव है ।
संसार ऐसे लोगों से भरा पड़ा है जिनका मन काला और तन गोरा है- ‘स्‍वारथ हित भूतल भरे, मन मेचक तन सेत ।’ प्रत्‍येक प्राणी का यह आंतरिक कपट उसकी स्‍वार्थपरकता के रूप में परिलक्षित होता है । जिस किसी से भी स्‍वार्थ-सिद्धि की संभावनाएँ समाप्‍त हो जाती हैं, मनुष्‍य ही नहीं अन्‍य सभी प्राणी भी उसके प्रति किसी प्रकार का लगाव नहीं रखते ।  संसार में चाहे वह  कोई मनुष्‍य हो, मुनि हो या फिर देवता ही क्‍यों न हो,सभी केवल स्‍वार्थ के कारण प्‍यार करते हैं । यथा :
सुर नर मुनि सब कै यह रीती ।स्‍वारथ लागि करहिं सब प्रीती ।।
स्‍पष्‍ट है कि संसार में सभी लोगों के  द्वारा परस्‍पर किया जाने वाला प्रेम स्‍वार्थ पर आधारित है । सांसारिक लोगों से तो स्‍वप्‍न में भी निःस्‍वार्थ  होने की कल्‍पना नहीं की जा सकती ।
संसार में निःस्‍वार्थ  प्रेम करने वाले तो केवल दो ही हैं- स्‍वयं प्रभु या फिर उनके सेवक । रामचरितमानस के उत्तरकाण्‍ड में श्रीराम गीता के नाम से प्रसिद्ध उपदेश में  ईश्‍वर के इस निःस्‍वार्थ  प्रेम की विशद व्‍याख्‍या की गई है । अतः प्रेम करने के लिए पात्रता केवल प्रभु राम के ही पास है । उनसे प्रेम करने के अतिरिक्‍त तुलसी के पास दूसरा कोई विकल्‍प भी तो नहीं है :
जो तुम त्‍यागो राम हौं तौ नहिं त्‍यागो । परिहरि पाँय काहि अनुरागों ।।
सुखद  सुप्रभु  तुम  सो  जग  माहीं ।   श्रवन  नयन  मन गोचर नाहीं ।।
पंचभौतिक सीमाओं में बँधा जीव जब भी किसी सुखद आश्रय की खोज करता है तो उसे जो कुछ भी अपने इर्द-गिर्द दृष्टिगोचर होता है, उसमें कोई भी वस्‍तु चिरस्‍थाई सुख देने वाली नहीं है । यह विचार प्रत्‍येक वस्‍तु या संबंध के बारे में सूक्ष्‍म विश्‍लेषण करने के पश्‍चात उभर कर आता है । अतः सबसे सौभाग्‍यशाली तो उसे ही कहा जाएगा जिसे प्रभु से प्रेम हो गया है । क्‍योंकि  संसार और उसके  विषय-भोगों  से  उत्‍पन्‍न सुख तो अन्‍ततः  विनष्‍ट  हो  जाएँगे ।
इन्‍हें प्राप्‍त करने में सारा जीवन लगा देनेवाले को इस व्‍यर्थ के कार्य पर पछताना पड़ेगा । प्रेम के पात्र न तो शिव, ब्रह्मादि देवता हैं और न ही शुकदेव, सनकादिक व  नारद आदि ब्रह्मज्ञानी ।
तुलसी के राम जहाँ पुरुषोत्तम हैं वहीं  ब्रह्म के रूप भी हैं। उनकी आज्ञा का पालन करने के लिये  ब्रह्मा, विष्‍णु, महेश, चन्‍द्र, सूर्य, दिक्‍पाल, माया, जीव, काल, शेषजी, पृथ्‍वी के राजा, वेद-शास्‍त्रों में कही गई योग सिद्धियाँ- सभी बाध्‍य हैं :
बिधि हरि हरु ससि रबि दिसिपाला । माया जीव करम कुलि काला ।।
अहिप  महिप   जँह   लगि प्रभुताई ।  जोग  सिद्धि  निगमागम गाई ।।
करि   बिचार   जियँ   देखहु   नीकें ।  राम  रजाइ सीस  सब  ही कें ।।
इस प्रकार राम उस शक्‍ति का नाम है जो सृष्टि की अन्‍य सभी शक्‍ति‍यों  को अनुशासित कर रही है ।
तुलसी के अनुसार राम में करोडों सरस्‍वतियों के समान बुद्धि है । सौ करोड़ ब्रह्मा के समान सृष्‍टि निर्माण की क्षमता, करोड़ों विष्‍णुओं के समान पालन-क्षमता तथा सौ करोड़ रुद्रों के समान संहार-क्षमता विद्यमान है । तुलसी एक ओर जहाँ उनके सगुण रूप-सौंदर्य का वर्णन अपने काव्‍य में करते हैं, वहीं जब वे उनके लोकोत्तर रूप को चित्रित करते हैं तो उसकी प्राप्‍ति के लिए प्रेम को आवश्‍यक शर्त मानते हैं । राम   ‘प्रेम कनौड़े’ हैं । प्रेम के बिना उनकी भक्‍ति नहीं हो सकती । भक्‍ति का आधार प्रेम है । रामपद की प्राप्ति उसका फल है । अतः  जब प्रेम पनपता है तभी रामपद की प्राप्‍ति संभव हो पाती है :
समुझि  समुझि गुन ग्राम राम के, उर अनुराग बढ़ाउ ।
तुलसिदास  अनयास   रामपद   पाइहै  प्रेम  पसाउ ।।
प्रभु राम के गुणों को समझनेवाले भक्‍त प्रेम के मार्ग का चुनाव इसलिए करते  हैं  क्‍योंकि  वे प्रभु-प्रेम  के  आगे स्‍वयं को विवश पाते हैं । प्रेमी उनके  साथ एकाकार होकर उन्‍हीं की अवस्‍था को प्राप्‍त कर जाता है । प्रभु राम जहाँ स्‍वामी हैं, अन्‍तर्यामी  प्रभु हैं, वहीं  वे प्रेम और कृपा के भण्‍डार भी हैं । वे जहाँ सभी के निःस्‍वार्थ  मित्र हैं  वहीं पवित्र प्रेम का अनुगमन करनेवाले-‘पुनीत प्रेम अनुगामी’ भी हैं । प्रेम  का महत्‍व  इससे अधिक  और  क्‍या  हो  सकता  है  कि   प्रेम के वश होकर ही निर्गुण, निराकार, अजन्‍मा राम सगुण रूप में जन्‍म लेता है ।  दूसरे शब्‍दों में यह भी कहा जा सकता है कि प्रेमियों के लिए ही प्रभु संसार में अवतरित होते हैं ।
उन्‍हीं राम के प्रेम से व्‍यक्‍ति में समता आ जाती है, उसकी सांसारिक आसक्‍तियाँ, क्रोध तथा सारे दुख दूर हो जाते हैं और वह सहज ही संसार-सागर को पार कर जाता है :
तुलसी ममता राम  सों  समता  सब  संसार ।
राग न रोष न दोष दुख दास भए भव पार ।।
पंचभौतिक जगत में किसी भी वस्‍तु की ममता उसके प्रति लगाव को जन्‍म देती है । यही सामान्‍य-विशेष तथा राग-द्वेष की उत्‍पत्ति का कारण भी है । इस प्रकार की भेद-दृष्टि समत्‍व का दर्शन कराने वाली विवेक-शक्‍ति को पंगु बना देती है । इसके विपरीत सर्वमय प्रभु का प्रेम साधक के  अन्‍तर में प्रभु के ही समान समत्‍व को जन्‍म देता है ।
प्रेमी प्रेम के नशे में सोता है, वह जागता है तो प्रियतम राम का नाम लेकर उसे स्‍मरण करता रहता है । उसकी हालत ऐसी हो जाती है कि  वह दिन-रात यही सोचता रहता है कि भले ही सबकुछ चला जाए परन्‍तु राम का स्‍नेह नित्‍य प्रति बना रहे । प्रियतम का नाम सुनते ही शरीर पुलकित हो जाता है । जुबान बंद हो जाती है  और आँखों से आँसू बहने लगते हैं :
मम गुन गावत पुलक सरीरा । गदगद गिरा नयन बह नीरा ।।
काम  आदि  मद दंभ न जाकें । तात  निरंतर  बस  मैं  ताकें ।।
प्रेम का आँसुओं  से गहरा नाता  है । प्रेमाश्रुओं  की  बाढ़  में  काम क्रोधादि विकार बह जाते हैं तथा प्रभु का सामीप्‍य प्राप्‍त होता है ।
तुलसी प्रेमी के लिये नियमों से बढ़कर प्रेम को मानते हैं । जिस प्रकार किसी प्राप्‍त वस्‍तु की रक्षा करने का उपाय किये बिना वस्‍तु को प्राप्‍त करना व्‍यर्थ है, उसी प्रकार  प्रेम  के  बिना  नियम  भी व्‍यर्थ  हैं । तभी   तो तुलसी ईश्‍वर के सामने बार-बार यही  प्रार्थना करते हैं कि  मुझे जहाँ भी जन्‍म प्राप्‍त हो, प्रभु राम का स्‍नेह प्राप्‍त हो । उनका हर क्रिया-कलाप में प्रेम की सुगंधि से सुवासित है ।
सार रूप में कहें तो प्रेम का वर्णन अकथनीय है। प्रेम तो कवियों के मन व वाणी की पहुँच से परे है । जिस प्रकार एक नर्तक ताल के आधार पर नाचता है उसी प्रकार कवि भी शब्‍द व अर्थ के सहारे काव्‍य रचना करता है । यह उसकी सीमा है कि वह  शब्‍द और अर्थ के बल पर ही अपनी बुद्धि के सहारे किसी वस्‍तु का चित्रण कर सकता है, परन्‍तु अलौकिक प्रेम का वर्णन करने के लिए वह अनुसरण करे भी तो किसका ? यथाः
कहहु सुप्रेम प्रगट को करई । केहि  छाया  कबि  मति अनुसरई ।।
कबिहि अरथ आखर बलु साँचा।अनुहरि ताल गतिहि नटु नाचा।।
संसार में अनेक लोग कवि-कर्म में प्रवृत्त हैं । उन सबका विषय भी प्रायः प्रेम संबंधी अवस्‍थाओं का विवरण रहता है । परन्‍तु इस प्रकार का सम्‍पूर्ण साहित्‍य प्रायः बुद्धि-विलास की श्रेणी में ही आता है । यह बात अलग है कि समय के साथ-साथ ऐसे बौद्धिक स्‍तर पर लिखे गये साहित्‍य की भी भक्‍त-कवियों के शुद्ध आत्मिक-साहित्‍य से तुलना की जाने लगी है । इसे काव्‍य के स्‍तर पर आधुनिक काल की दरिद्रता  कहा जाए तो अतिश्‍योक्‍ति न होगी । इससे बड़ी विडम्‍बना और क्‍या हो सकती है कि कतिपय आधुनिक समीक्षक छायावाद के भौतिक और मानसिक  फलक  पर लिखे  गये  संसारी काव्‍य  को  भी  कई  बार तुलसी व कबीर जैसे सन्‍तों के  आध्‍यात्मिक  साहित्‍य  के  समकक्ष  ठहराने की  चेष्‍टा  करते दिखाई देते हैं ।
जीवन का आत्मिक आयाम भौतिक और मानसिक आयामों से अगली अवस्‍था है । प्रथम दो स्‍तरों से अन्‍वेषण करने पर तो  आत्‍मतत्‍व की धुंधली सी झलक भी नहीं मिल पाती । इसका कारण यह है कि मन व शरीर जीवात्‍मा के दो आवरण मात्र है । तुलसी ने इन आवरणों के निरूपण में प्रवृत्त कवियों के श्रम को सरस्‍वति के द्वारा किया जाने वाला रुदन  कह कर  सचमुच  वास्‍तविक  तथ्‍य  को अनावृत्त करने का प्रयास किया है ।
यदि प्रभु-प्रेम का रसास्‍वादन करना हो तो सबसे प्रथम आवश्‍यकता है अपनी सांसारिक अनुरक्‍तियों  से मन व बुद्वि का निरोध । विषयों के प्रति इन्द्रियों की अनुरक्‍ति से ही नश्‍वर संसार के प्रति ममता उत्‍पन्‍न होती है, जो कि जीवात्‍मा का इस पंचभौतिक संसार में उलझे रहने का प्रमुख कारण है । इसीलिये भारतीय आध्‍यात्‍म चेतना में  त्रिबिध रोगों का वर्णन पाया जाता है । भौतिक व मानसिक स्‍तर पर पायी जाने वाली व्‍याधियाँ इस कारण आपस में आबद्ध हैं क्‍योंकि मन अपने स्‍वभाव के कारण मिथ्‍या संसार को ही सत्‍य मान बैठा है । इसे हर पल नवीन की चाह  रहती है ।  इन्द्रियाँ भौतिक स्‍तर पर शारीरिक सुखों व भोगों की ओर भागती फिर रही हैं । ऐसे में सबसे पहली आवश्‍यकता शरीर में लगे विषयासक्‍ति के रोग को दूर करने की है । भौतिक सांसारिक अनुरक्‍तियाँ और ईश्‍वरीय प्रेम एक दूसरे की विपरीत दिशा में स्थित हैं । यदि एक की ओर मुँह होगा तो दूसरे की ओर पीठ होगी ही । अतः तुलसी श्रेष्‍ठ विकल्‍प का चुनाव करते हैं- संसार की ओर पीठ करके प्रभु की ओर मुँह करने का  विकल्‍प । वे संसार को उसी प्रकार त्‍याग देते हैं जैसे साँप केंचुल को त्‍याग देता है ।
जीवनानुभव की प्रौढ़ता हमें यही बताती है यदि किसी को किसी दूसरे से कोई भी स्‍वार्थ न रहे तो प्रेम के रूप में किया जाने वाला दिखावा तिरोहित हो जाता है । जिसे आत्मिक अनुभव प्राप्‍त हो गया है उसके लिये ईश्‍वर केवल सोच-विचार करने का एक विषय नहीं रह जाता, बल्कि प्रत्‍यक्ष अनुभूतिजन्‍य एक ठोस वास्‍तविकता बन जाता है । ऐसी स्थिति में न तो  साधक के पास अन्‍य कुछ भी जानने के लिये शेष बचता है और न ही उसके विचलित होने का प्रश्‍न पैदा होता है । यही सच्‍चे प्रेम के उदभव की आधार-भूमि है । इसी आत्मिक अनुभव की दशा में तुलसी का राम-प्रेम पुष्‍ट होता है । इसीलिये वह सांसारिक अनुरक्‍तियों से सर्वथा भिन्‍न है ।
तुलसी काव्‍य की इस परिभाषा से परिचित थे कि शब्‍द व अर्थ सहित रचना ही काव्‍य है । शुद्ध आत्मिक प्रेम की अभिव्‍यक्‍ति कवियों के लिये इसलिये संभव नहीं है क्‍योंकि बौद्धिक व ऐन्द्रिक स्‍तर पर गोचर होने वाले अनुभवों की अभिव्‍यक्‍ति अक्षरों और उनके अर्थ के रूप में की जा सकती है; आत्मिक अनुभव इस प्रकार का नहीं होता, अतः वह वर्णनातीत है ।
-देवेन्‍द्र शर्मा
तुलसी के नाम सिद्धांत का विवेचन
        मध्‍यकालीन संत साहित्‍य में ‘नाम’ एक ऐसा तत्त्व है जो कि सभी भक्‍त कवियों की बानियों में समाहित है। रामचरितमानस रूपी अमर कृति के प्रणेता तुलसीदास जी भी इसके अपवाद नहीं हैं। उन्‍होंने चारों युगों, तीनों कालों और तीनों लोकों में नाम के द्वारा जीवों के शोकरहित होने की बात कही हैः
     चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका। भए नाम जपि जीव बिसोका।।
कलि केवल मल मूल मलीना। पाप पयोनिधि जन मन मीना।।
नाम कामतरु काल कराला। सुमिरत समन सकल जग जाला।।
यही नाम सेवकों के दुखों और दुराशाओं कों सभी दोषों सहित इस प्रकार नष्‍ट करने की क्षमता रखता है जैसे सूर्य रात्री कोः
    सहित दोष दुख दास दुरासा। दलइ नामु जिमि रबि निसि नासा।।
इस नाम रूपी शक्ति की महिमा इससे अधिक क्‍या हो सकती है कि तुलसी के अनुसार यह ब्रह्म और राम दोनों से बड़ा हैः
    ब्रह्म राम तें नामु बड़ बरदायक बरदानि।
ऐसी अनंत महिमा युक्‍त नाम की साधना बिना न तो शरीर की कोई सार्थकता है और न ही धन-संपत्ति की। ठीक वैसे ही जैसे कि सभी आभूषणों से युक्‍त नारी भी वस्‍त्रहीन होने पर शोभा को प्राप्‍त नहीं हो सकतीः
राम नाम बिनु गिरा न सोहा। देखु बिचारि त्‍यागि मद मोहा।।
बसन हीन नहिं सोह मुरारी। सब भूषन भूषित बर नारी।।
राम बिमुख सुपति प्रभुताई। जाइ रही पाई बिनु पाई।।
सजल मूल जिन्‍ह सरितन्‍ह नाहीं। बरषि गएँ पुनि तबहि सुखाहीं।।
इतना ही नहीं चाहते हुए, न चाहते हुए अथवा आलस्‍यपूर्वक भी यदि नाम का जाप किया जाये तो तो भी सभी प्रकार से भला ही होता है। यदि कोई विवशतापूर्वक भी नाम स्‍मरण करता है तो वह भी अनेक जन्‍मों के पाप-कर्मों से मुक्‍त होकर पवित्र हो जाता है। फिर यदि कोई आदरपूर्वक स्‍मरण करता है तो इस संसार सागर को गौ के खुर के निशान की तरह पार कर सकता हैः
भायँ कुभायँ अनख आलसहुँ । नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ।।
बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं। जनम अनेक रचित अघ दहहीं।।
सादर सुमिरन जे नर करहीं। भव बारिधि गोपद इव तरहीं।।
कलियुग में तो नाम के अतिरिक्‍त अन्‍य किसी भी कर्म, भक्ति या विवेक का महत्त्व स्‍वीकार ही नहीं किया गया है। इस युग में नाम ही वाँछित फल देनेवाला है- परलोक में मित्र के समान और इस लोक में माता-पिता के समानः
     रामनाम कलि अभिमत दाता। हित परलोक लोक पितु माता।।
नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू।।
रूप एवं नाम में से कौन श्रेष्‍ठ है? इस प्रश्‍न का उत्तर देने का प्रयास भी तुलसी साहित्‍य में किया गया है। विद्वान संत के अनुसार नाम और रूप ईश्‍वर की उपाधियाँ हैं और इन्‍हें छोटा या बड़ा कहना अपराध है। परंतु अनेक प्रमाणों के आधार पर यह आसानी से समझा जा सकता है कि दोनों में नाम का महत्त्व  अधिक है। वास्‍तव में रूप का ज्ञान भी नाम के द्वारा ही हो सकता है। नाम के अभाव में रूप का ज्ञान तो हो ही नहीं सकता और यदि रूप देखे बिना भी नाम स्‍मरण किया जाये तो विशेष स्‍नेह के साथ रूप स्थिति हृदय में उभर आती हैः
     समुझत सरिस नाम अरु नामी । प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी।।
नाम रूप दुई ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी।।
को बड़ छोट कहत अपराधू। सुनि गुन भेदु समुझिहहिं साधू।।
देखिअहिं रूप नाम आधीना। रूप ग्‍यान नहिं नाम बिहीना।।
रूप बिसेष नाम बिनु जानें। करतल गत न परहिं पहिचानें।।
सुमिरिअ नाम रूप बिनु देखें। आवत हृदयँ सनेह बिसेषें।।
नाम रूप गति अकथ कहानी। सुझत सुखद न परति बखानी।।
अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी। उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी।।
परंतु विचारणीय तथ्‍य यह है कि जिस नाम की इतनी महिमा बताई गई है, वास्‍तव में वह है क्‍या? इस प्रकार की महिमा से युक्‍त वाणी द्वारा उच्‍चरित कोई सांसारिक नाम नहीं हो सकता। प्रकारांतर से यही बात तुलसी ने अपनी सतसई में भी कही है कि सारा संसार तो रसनासुत नाम से निरेतर प्रीति करते हुये उसी के पीछे लगा हुआ है और रीति-अरीति कुछ भी नहीं समझ पा रहाः
     रसना ही के सुत उपर करत निरंतर प्रीति।
तेहि पाछे सब जग लगेउ समुझ न रीति अरीति ।।
रसना जाप तो केवल काल्‍पनिक आधार उपलब्‍ध करवा सकता है और निश्चित रूप से सार वस्‍तु की प्राप्ति के लिये अपर्याप्‍त है। फिर वह कौन सा नाम है जिसके बारे में यहाँ तक कहा गया है- कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। राम न सकहिं नाम गुन गाई।। जो असंख्‍य तीर्थों के समान पवित्र करनेवाला और पाप समूहों का नाश करनेवाला हैः
     तीरथ अमित कोटि सम पावन। नाम अखिल अघ पूग नसावन ।।
नाम तो ऐसे विलक्षण गुणों से संपन्‍न है कि उसने सूर्य, अग्नि और चंद्रमा आदि की उत्‍पत्ति की है। वह तो ब्रह्मा, विष्‍णु तथा शिव से भी बड़ा हैः
     भानु कृसानु मयंक को कारन रघुबर नाम।
बिधि हरि संभु सिरोमनि प्रनत सकल सुखधाम ।।
तुलसी ही क्‍यों अन्‍य संतों ने भी नाम की अत्‍यंत विलक्षण महिमा का वर्णन किया है। आदि ग्रंथ में तीसरे गुरु अर्जुन देव जी का कथन है- उतपति परलउ सबदे होवै -सृष्टि कर उत्‍पत्ति और प्रलय शब्‍द या नाम के द्वारा ही होती है। जबकि प्राण संगली में गुरु नानक ने कहा है कि पृथ्‍वी, आकाश तथा संपूर्ण सृष्टि का आधार शब्‍द ही हैः
     सबदे धरती सबदे आकास । सबदे सबद भइया परगास।।
सगली सृसटि सबद के पाछे। नानक सबद घटे घट आछे।।
नाम अथवा शब्‍द के रूप में वर्णित इस अपार शक्ति के शोध का प्रकरण यहाँ इस बिंदु पर केंद्रित हो जाता है कि क्‍या परा, पश्‍यंती, मध्‍यमय और वैखरी भेदों से उच्‍चरित वर्णात्‍मक नाम चिर शांतिदायक हो सकता है? यहाँ सबसे अधिक विचारणीय तथ्‍य यह है कि वर्णात्‍मक नाम तो भाषा भेद के कारण अलग अलग होते हैं और दुनिया भर की असंख्‍य भाषाओं में पाए जानेवाले इन असंख्‍य वर्णात्‍मक नामों को देखकर मन का विचलित होना स्‍वाभाविक है।
तग्‍य कृतग्‍य अग्‍यता भंजन। नाम अनेक अनाम निरंजन ।।
 इस स्थिति में हमारा वेदों शास्‍त्रों पुराणों व्‍याकरणों आदि के ज्ञाता होने का क्‍या लाभ, यदि हमें नाम के रहस्‍य का ज्ञान न हुआ-
     चारों चौदह अष्‍टदश, रस समुझव भरपूर।
नाम भेद समुझै बिना सकल समझ महँ धूर ।।
नाम के इस वर्णन को ‘सबद रूप बिबरण बिसद’ कहकर तुलसी ने विस्‍तारपूर्वक समझाने का प्रयास किया है। आप नाम के तीन भेद बताते हुये कहते हैं-
     श्रवणात्‍मक ध्‍वन्‍यात्‍मक वर्णात्‍मक बिधि तीन।
त्रिबिध शब्‍द अनुभव अगम तुलसी कहहिं प्रवीन।।
अर्थात् एक शब्‍द वह है जो सुना तो जा सकता है परंतु लिखा या बोला नहीं जा सकता, जैसे विभिन्‍न पक्षियों की आवाजें, बम विस्‍फोट आदि की आवाज, मेघ गर्जना, तडि़त आदि की ध्‍वनियाँ इन्‍हें ठीक उसी रूप में लिखना संभव नहीं है। दूसरा वर्णात्‍मक शब्‍द है जो वर्णों की सीमा में आने के कारण लिखा, बोला तथा सुना जा सकता है। तीसरे प्रकार के अलौकिक शब्‍द को ध्‍वन्‍यात्‍मक कहा जाता है। यह वह जिसका अनुभव आंतरिक धुन के रूप में होता है।
इसे ही नानक ने ‘सबद घटे घट आछे’ कहा था और जिसके विषय में मैत्री उपनिषद के छठे प्रपाठक में आया है कि शब्‍द ब्रह्म के ध्‍यान द्वारा अशब्‍द ब्रहद्वम प्रकट होता है। इसी ओर स्‍पष्‍ट संकेत करते हुये सतसई में तुलसी कहते हैं कि राम को सुना जा सकता हैः
     सुमिरु राम भजु राम पद देखु राम सुनु राम।
     तुलसी समुझहु राम कहँ अहनिशि यह तव काम।।
ऋग्‍वेद के वागाम्‍भृणी सूक्‍त, अथर्ववेद के तीसवें सूक्‍त, छांदोग्‍य उपनिषद के तीसरे प्रपाठक और नाद बिंदु उपनिषद में भी आंतरिक नाद श्रवण की अनेक प्रकार से महिमागाई गई है। वास्‍तव में यही वह नाम है जिसकी प्राप्ति निष्‍काम भक्‍तों को होती है-
     सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन।
नाम सुप्रेम पियूष ह्रद तिन्‍हहुँ किए मन मीन।।
इसे ही अपने विचारानुसार तुलसी ने ‘नामु बड़ राम तें’ कहा है।   
संत कबीर के अनुसार भी यह नाम देह रहित है और जीभ पर नहीं आ सकता, अतः केवल अनुभवगम्‍य हैः
शबद शबद सब को कहे, वह तो शबद बिदेह।
जिह्वा पर आवै नहीं, निरख परख कर लेह।।
नाम की सर्वव्‍यापकता का उल्‍लेख करते हुए फारस के प्रसिद्ध दरवेश मौलाना रूम अपनी मसनवी में परमात्‍मा के आगे यही प्रार्थना करते हैं कि ऐ खुदा! मुझे वह मुकाम बता, जहाँ तेरा क़लमा (नाम) बगैर अक्षरों के अपने आप हो रहा है । जैन आदि पुराण (पर्व 1, श्‍लोक 184) में भी इसी ओर संकेत करते हुए कहा गया है-‘अपरिस्‍पन्‍दताल्‍वादेरस्पष्‍टदशनद्युतेः’ अर्थात् तीर्थंकर के मुख से उच्‍चरित होनेवाली ध्‍वनि तालु, कंठ, होंठ आदि के हिले बिना तथा दाँतों की कोई किरण प्रकट हुए बिना ही प्रकट हो रही थी, भाव यह है कि वह वर्णात्‍मक नहीं थी।
यह दिव्‍य वाणी या नाम हर मनुष्‍य के अंतर में निरंतर गुंजायमान हो रहा है।
नित हरि कथा होत जहाँ भाई। पठवउँ जहाँ सुनहु तुम्‍ह जाई।।
तुलसी के अनुसार इस नाम (शब्‍द, अनाहत नाद) का ज्ञन अति दुष्‍कर है। जिसे किसी जानकार गुरु के बिना समझ पाना संभव नहीं है। इस प्रकार गुरु की अनिवार्यता स्‍पष्‍ट करते हुए आप का मंतव्‍य हैः
     भेद जाहि बिधि नाम मँह, बिन गुरु जान न कोय।
तुलसी कहहिं बिनीत बर, जौं बिरंचि शिव होय।।

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